दीवारों से करती हूँ बाते
पर वो भी मूह फेरते है
हवाओ से करने जाती हूँ दोस्ती
पर वो भी हाथ नहीं मिलाते
साया भी नहीं देता अब साथ मेरा
घूमा फिरता है मुझसे ख़फा - ख़फा।
सभी खूबसूरत मौसम
भाग जाते है मुझको देखकर
रोशनी की तलाश करती हूँ हर रोज़ ।
धूप इतनी बढ़ती जा रही है
तड़प रही हूँ ,अब हार चुकी हूँ
कदम आगे अब नहीं बढ़ते
तपती धरा मुझे अब बैठने भी नहीं देती ।
डर लगता है अब तो
कही अंधकार निगल न जाए
कही ऐसी दुनिया
में न पंहुचा दे
जहाँ मै खुदको पहेचान भी न पाऊ ।
कलम : श्रुति ई आर