Sunday, June 16, 2013

तन्हाई

                                           






दीवारों से करती  हूँ बाते
पर वो भी मूह फेरते है
हवाओ से करने जाती हूँ  दोस्ती
पर वो भी हाथ नहीं मिलाते
साया भी नहीं देता अब साथ मेरा
घूमा फिरता है मुझसे ख़फा - ख़फा।

सभी खूबसूरत मौसम
भाग जाते है मुझको देखकर
रोशनी की तलाश करती हूँ  हर रोज़ ।

धूप इतनी बढ़ती जा रही है
तड़प रही हूँ ,अब हार चुकी हूँ
कदम आगे अब नहीं बढ़ते
तपती धरा मुझे अब बैठने भी नहीं देती ।

डर लगता है अब तो
कही अंधकार निगल न जाए
कही ऐसी दुनिया
में न पंहुचा दे
जहाँ मै खुदको पहेचान भी न पाऊ ।


कलम : श्रुति ई आर

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